हिमाचल यात्रा

यात्रा पहले तो आपको निःशब्द कर देती है और फिर आपको कथाकार बना देती है - इब्न बतूता (अरब यात्री, विद्वान् तथा लेखक)

अब जब मैं अपनी हिमाचल यात्रा का संस्मरण लिखने बैठी हूँ; सोच रही हूँ कितना सही कह गए बतूता साहब| पत्थर और फर्न -दो ऐसी चीजें हैं जिनसे मुझे अगाद प्रेम है| शायद यही वजह है कि पहाड़ों पर जाने भर के ख्याल से मैं रोमांचित हो उठती हूँ|

वह जून महीने की एक खूबसूरत सुबह थी जब हम शोघी पहुँचे| मौसम अपेक्षा के अनुरूप खुशगवार था| हर तरफ सैलानियों की उपस्थिती के बावजूद एक अजीब सी शांति पसरी हुई थी| ऐसा लग रहा था कि जैसे पेड़-पहाड़ और पूरी वादी आपसे कुछ कहना चाह रही हो| होटल के कमरे में सामान व्यवस्थित किया और फिर जलपान करने के बाद रात की यात्रा की थकान को मिटाने के लिए हम तीन-चार घंटों के लिए नींद की आगोश में चले गए|



नींद से उठकर नहाया और फिर टैक्सी लेकर चल पड़े| जब यह निर्णय लेने की बारी आई कि सबसे पहले कहाँ जाना है, तो मैंने बिना एक पल भी गँवाए "तारादेवी मंदिर" जाने का अपना निर्णय सुना दिया| मेरे श्रीमुख से किसी मंदिर जाने की बात सुनकर कोई चुप कैसे रहता! कारण बताओ नोटिस जारी किया गया| फिर मैंने बताया कि जबसे निर्मल वर्मा का उपन्यास "अंतिम अरण्य" पढ़ा है, तो उस कहानी के किरदार जेहन में इस कदर घर कर गए कि मुझे लगता रहा कि जिस दिन शोघी जाऊँगी, तो वह किरदार ठीक वैसे ही उस मंदिर में मिलेगी| हमारे बचपन में टीवी नहीं होने के कारण हमारी कल्पनाशक्ति का कुछ अधिक ही विकास हो गया|

लगभग ४५ मिनटों के बाद हम तारादेवी के प्रांगन में थे| आसमान में काले -काले बादल घिर आये थे| तारादेवी की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए महसूस किया कि थकान अभी पूरी तरह गयी नहीं थी; पर उस समय वहाँ मौजूद होने भर के ख्याल से रोमांचित हो रही थी| तारा देवी मंदिर, शोघी में शिमला-कालका रोड पर समुद्र तट से 6070 फीट की ऊँचाई पर स्थित है।  देवी तारा को समर्पित यह मंदिर, तारा पर्वत पर बना हुआ है। अगर इसके इतिहास की बात करें तो यह मंदिर लगभग 250 वर्ष पुराना है, जिसकी स्‍थापना पश्चिम बंगाल के सेन वंश के एक राजा, भूपेंद्र सेन ने करवाई थी। देवी तारा सेन वंशीय राजाओं की कुलदेवी हैं। मूल मंदिर कभी जुग्गर गाँव में था और कालान्तर में नव मंदिर का निर्माण कार्य जयशिव सिंह चंदेल तथा अन्य श्रद्धालुओं ने मिलकर करवाया|



मंदिर के अंदर देवी तारा के अतिरिक्त देवी लक्ष्मी और देवी सरस्वती की मूर्तियाँ विद्यमान थीं| अगर धार्मिक अनुष्ठानों में आपकी अभिरुचि नहीं है, तो वहाँ करने लायक कुछ विशेष नहीं है| मन्दिर से शोघी का ख़ूबसूरत नजारा देखने लायक था। कुछ देर मंदिर के प्रांगन में बैठकर हमने सुन्दर नजारों का लुत्फ़ उठाया और फिर माल रोड की तरफ निकल पड़े| लौटते हुए थोड़ी निराश थी| निर्मल वर्मा के वो किरदार जो नहीं दिखे!!!

जब हम अपनी यात्रा की तैयारी कर रहे थे, तो हमें किसी परिचित ने बताया था कि दिल्ली और शिमला के तापमान में कुछ ज्यादा फर्क नहीं है और हम उसी हिसाब से सूटकेस का बोझ ऊनी कपड़ों से बिना बढ़ाये निकल पड़े| पर प्रकृति किसी की गुलाम नहीं| अपनी मर्जी से चलती है|  माल रोड पर पहुँचते ही बारिश की बूँदों ने हमारा स्वागत किया| वहाँ पहुँचकर सबसे पहले एक रेस्त्रां में दिन का खाना खाया और फिर माल रोड पर खरीदारी की| मौसम का तकाज़ा था कि सबसे पहले छाते के साथ पश्मीना शाल की खरीदारी की गयी| फिर उसी छाते को तान आगे की खरीदारी की और सैर -सपाटा भी किया| बलूत, देवदार और रोडोडेंड्रन के वृक्षों से आच्छादित तथा ठण्डी हवा और मनमोहक प्राकृतिक दृश्यों का शहर शिमला समुद्रतल से 2,130 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। वर्ष 1846 से 1857 के बीच बने क्राइस्ट चर्च को माल रोड पर सबसे प्रमुख भवन माना जाता है। रिज से देखने पर चर्च बेहद सुन्दर नजर आता है और कई किलोमीटर दूर से एक ताज की तरह दिखाई देता है। रिज शिमला के बीचोबीच एक बड़ा और खुला स्थान है जहाँ से पर्वत श्रृंखलाओं का भव्य नजारा दिखता है। जब हम चर्च के अंदर गए तो थोड़ा आश्चर्य हुआ| बाहर का तापमान बारिश की वज़ह से काफी कम हो चूका था| इसलिए मैं थोड़ी सी गर्माहट पाने के लिए ठीक वहाँ जाकर खड़ी हो गयी जहाँ मोमबत्तियां जल रहीं थीं| पीछे के कमरे से तेज आवाज में एक पंजाबी गाने की आवाज आ रही थी| सैलानियों में सेल्फी लेने की होड़ लगी थी| कुल मिलाकर वह सुकून और शांति नदारद थी जो आमतौर पर किसी चर्च में पायी जाती है| ऐसे में २० मिनट से अधिक वहाँ रहना मुमकिन न हो सका और वहाँ से निकलकर हम "स्कैण्डल प्वाइन्ट" गए|

कहा जाता है कि स्कैण्डल प्वाइन्ट से पटियाला के महाराजा भूपिन्दर सिंह ने अंग्रेज वायसरॉय की बेटी को उठाया था और बदले में वायसरॉय ने उनके शिमला आने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। महाराजा ने भी अपनी आन-बान और शान का प्रदर्शन करते हुए चैल बसा डाला जो शिमला से भी ऊँचा नगर है| इस घटना के कारण माल रोड पर स्थित इस जगह का नाम स्कैण्डल प्वाइन्ट पड़ा। कुछ समय हम यहाँ के मनोरम दृश्यों में खोये रहे और फिर लक्कड़ बाज़ार की ओर चल पड़े|



लक्कड़ बाजार के दोनों ओर दुकानें हैं जिनमें हिमांचल प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में बनने वाली चीजें बिक रही थीं। लक्कड़ बाज़ार अपने लकड़ी के सामान और सुविनियर के लिए प्रसिद्ध है। बिक रही चीजों में पश्मीना शाल, लकड़ी की बनी हुई छोटी-बड़ी चीजें और हिमाचली टोपी प्रमुख थे| ऐसे जगहों की खासियत यह होती है कि आपको अपने दोनों आँखों से दिखनेवाली हर वस्तु प्रिय लगती है और आप तब तक खरीदारी करते रहते हैं जब तक आपको महसूस न हो कि आपके दोनों हाथ सामानों से लद गए हैं|

खरीदारी खत्म करते शाम के साढ़े आठ बज चुके थे और हमें शोघी लौटना था। हम थक चुके थे और भूख-प्यास ने अचानक हमपर हमला बोल दिया| माल रोड के एक रेस्त्रां में हल्का नाश्ता करने के बाद हम शोघी की ओर निकल पड़े| किसी अन्य पहाड़ी शहर की ही तरह रात में शिमला का नजारा देखने लायक होता है| रात के लगभग दस बजे हम शोघी पहुच गए| अगले दिन के लिए हमनें हिमाचल प्रदेश पर्यटन विकास निगम का पैकेज  बुक किया था जिसके तहत हमें मसोबरा, चैल, कूफरी, नालदेहरा और तत्तापानी जाना था|  इसलिए बिना देर किए रात का खाना खाया और सो गए|

अभी आधी रात ही बीती थी कि बिजली के कौंधने से हमारी नींद खुल गयी| बादलों की गरज के साथ मूसलाधार बारिश हो रही थी| हमारा अनुमान था कि सुबह होने तक बारिश रुक जायेगी और हम तयशुदा कार्यक्रम के अनुरूप अपने दिन की शुरुआत कर सकेंगे| पर सोचा हुआ हरबार हो कहाँ पाता है!!! बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी|  हिमाचल प्रदेश पर्यटन विकास निगम से १२ बजे के करीब फोन आया| फोनकर्ता ने बताया कि बारिश की वजह से कार्यक्रम में विलंभ है और सुबह की बजाय साढ़े बारह बजे हमें शिमला पहुँच जाना होगा| उन्होंने यह भी बताया कि बुकिंग न तो कैंसिल हो सकती है और न ही उसे दुसरे दिन के लिए री-स्केद्युल ही किया जा सकता है| उस मूसलाधार बारिश में आधे घंटे में शिमला पहुँचना मुमकिन न था| रास्ते में गाड़ियों की लम्बी कतार खड़ी थी| हमनें बारिश रुकने तक होटल में ही रहने का निर्णय लिया | बारिश दिन के 2 बजे के करीब रुकी| हमने होटल में ही दिन का खाना खाया और शिमला की ओर निकल पड़े|

सबसे पहले हम वायसरीगल लॉज गए जिसे अब इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज़ के नाम से जाना जाता है| मुख्य द्वार से लगभग एक - डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद आपको टिकट काउंटर से टिकट लेकर मुख्य भवन में प्रवेश करने के लिए टिकट में टंकित समय का इन्तजार करना पड़ता है| एकबार में १५-२० लोगों को ही मुख्य इमारत में प्रवेश करने दिया जाता है| अभी हमारे पास लगभग 40 मिनट का समय था| पहला २० मिनट टिकट काउंटर के पास ही स्थित कॉफ़ी हाउस में कॉफ़ी की चुस्कियों के साथ गुजर गया| अगले २० मिनट में हमने उस विशाल प्रांगन से सुरम्य पहाड़ी दृश्यों का आनंद लिया| इस भव्य इमारत का निर्माण वायसराय लॉर्ड डफरिन के आवास हेतु किया गया था| ब्रिटिश हुकूमत ने इसी भवन से सम्पूर्ण भारत पर अपनी सत्ता चलाई और शिमला को भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी भी बनाया। वायसरीगल लॉज को आजादी के बाद राष्ट्रपति निवास में तब्दील किया गया। वर्ष 1964 तक यही राष्ट्रपति का ग्रीष्मकालीन निवास था। भवन के चारों ओर तरह-तरह के फूलों के बेलें लदी हैं और देवदार के घने पेड़ों के बीच विशाल समतल, हरा - भरा लॉन इसकी सुन्दरता को कई गुना बढ़ा देता है| पेड़ों के चारों ओर वृत्त बनाते खूबसूरत पत्थर और प्रांगन की दीवारों में बेतरह उग आये फर्न और शैवाल मेरा ध्यान आकर्षित करते हैं| भारत की पूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गान्धी व पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमन्त्री जुल्फीकार अली भुट्टो के बीच यहीं हुआ था 1972 का "शिमला समझौता", जिसके साक्ष्य आज भी इस भवन में मौजूद हैं। इस भवन में वह मेज अब भी मौजूद है जिस पर समझौते के कागज़ को रखकर दस्तख़त किया गया था। भवन की लगभग हर दीवार पर भवन से जुड़ी घटनाओं और उनसे जुड़े राजनीतिज्ञों की तस्वीरें हैं| मुख्य भवन तीन मंजिला है जिसमे सागौन या टीकवुड का भरपूर इस्तेमाल हुआ है| हमें बताया गया कि भवन में इस्तेमाल हुई लकड़ियों को उस समय बर्मा से मँगवाया गया था| सीलिंग में कश्मीर से मँगवायी गयी अखरोट की लकड़ियों पर की गयी नक्काशी देखने लायक थी| यहां का पुस्तकालय देश के बेहतरीन पुस्तकालयों में से एक है।  हमें बताया गया कि इस पुस्तकालय में 1 लाख 80 हजार से अधिक पुस्तकें हैं। भवन के अन्दर अंग्रेजों के जमाने का फर्नीचर, टेलीफोन  और गुलदान उस भवन की भव्यता को और बढ़ा रहे थे| कुल मिलाकर इस भवन को देखना एक शानदार अनुभव रहा| चार- साढ़े चार घंटे कब निकल गए, पता ही न चला| यहाँ से निकलकर हम "हिमालयन बर्ड पार्क" गए|

हिमालयन बर्ड पार्क  इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज़ के ठीक सामने स्थित है| सर्दियों में बर्फ़बारी के कारण यह पार्क/ एवियरी केवल गर्मियों के मौसम में ही दर्शकों के लिए खुला होता है। यहाँ मोर, मोनल और हंस सहित अन्य दुर्लभ पक्षियों की कई प्रजातियाँ देखने को मिलीं|

अँधेरा होने ही वाला था| लौटते हुए हम पास ही "वर्मा टी स्टाल" पर चाय के लिए रुके| इसी बहाने थोड़ी देर और उस सुन्दर वातावरण में रहने का मौका मिला | पास ही के देवदार पर लाल रंग की एक चिड़िया कुछ समय तक हमारा मनोरंजन करती रही| चाय पीने के बाद हम सीधे अपने होटल की ओर कूच कर गए| रास्ते में एक नर्सरी थी, जहाँ रुककर कुछ सकुलेंट पौधे खरीदे|



अगली सुबह नाश्ते के बाद कड़ी धूप साथ लिए हम कुफरी की ओर चल पड़े| रास्ते में ग्रीन वैली पड़ती है। हर ओर हरियाली से भरपूर यह एक बहुत ही खूबसूरत जगह है| ऊँचे-नीचे पहाड़ चारों तरफ से देवदार व अन्य जंगली पेड़-पौधों से ढंके हुए हैं। कुछ देर रूककर अपने अन्दर उस हरेपन को समेटे हम कूफरी की ओर चल पड़े|

मशोबरा और संजौली को निहारते हुए हम कुफरी पहुँचे| कुफरी पहुँचते हुए लगभग डेढ़ बज गए|  भूख  लगी थी और ठीक कार पार्किंग के पास एक स्टाल में एक ओर पराठा और दुसरी ओर मैगी बन रहा था| हमने पराठा और मैगी मिल-बांटकर खाया| इसके पहले हम सर्दियों के मौसम में यहाँ आये थे जब पूरी वादी बर्फ के सफ़ेद चादर से ढँकी थी| बर्फ में फिसलते हुए ट्रैकिंग का लुत्फ़ भी लिया था| पर इस बार धुप तेज थी और खाने के बाद ट्रैकिंग के बारे में सोचना भी दुष्कर लग रहा था| इसलिए हम २२२ एकड़ में फैले ग्रेट हिमालयन नेचर पार्क गए| वर्ष 2014 में यूनेस्को द्वारा इसे विश्व विरासत स्थल के रूप में घोषित किया गया है।यहाँ बंदर, याक, नील गाय, हिरण, शेर और चीता के अतिरिक्त काले और भूरे रंग के भालू दिखे| पहाड़ी बकरियों की प्रजातियों (भारल, गोरल और सीरो) को भी देखने का मौका मिला| पक्षियों में मोर, मोनल, गिद्ध और तीतर की कई खूबसूरत प्रजातियाँ को देखा| हिमालयन नेचर पार्क कई प्रकार की वनस्पतियों और जीवों से समृद्ध है। यह पार्क कई प्रकार के दुर्लभ पक्षियों और लुप्तप्राय जीवों का डेरा है|



पार्क से निकलकर आसपास के बाज़ार घूमने के बाद हम नालदेहरा के लिए चल पड़े|

अभी हम नालदेहरा पहुँचे ही थे कि मुझे मालूम हुआ यहाँ बिना घोड़े पर सवार हुए आप पहाड़ के उत्तुंग शिखर पर नहीं जा सकते जो कि लगभग 6 किलोमीटर की चढ़ाई है| मुझे यह भी बताया गया कि यहाँ जो कुछ भी है , वो सभी कुछ उस उत्तुंग शिखर पर ही है| मैं कोई महान जीव प्रेमी तो नहीं हूँ, पर अत्यधिक संवेदनशील होना भी परेशानी का सबब हो सकता है| कई बार सोचती हूँ संवेदना को टोपी जैसा कुछ होना चाहिए था; मतलब कि हम संवेदना को सुविधा के अनुसार इस्तेमाल कर पाते| अपने मनोरंजन के लिए किसी दुसरे जीव को कष्ट पहुँचाने भर के ख्याल से दिल बैठ गया| अचानक एक वाकया याद आ गया|  इसी साल किसी परिचित ने मुझे मछली खाकर बांग्ला नववर्ष मनाने का सुझाव दिया| मेरे यह बताने पर कि मेरे घर पर एक्वेरियम है और मैं मछली नहीं खाती; उसने चिढ़ाते हुए कहा था "बंगाली भद्रलोक समाज से तुम्हें बाहर कर दिया जाना चाहिए"| उस वक़्त जेहन में आ रहा था भद्रलोक समाज तो क्या, इतनी अधिक संवेदना के साथ इस धरती पर रहना भी मुश्किल ही है| इस यात्रा में अगर मैं अकेली होती, तो शायद बिना एक भी पल सोचे लौट आती| मन में अपराध बोध घर करने लगा कि मेरे उसूलों की वज़ह से सबका मन मलीन हो जाएगा| इतना तय था मेरे "ना" कहने पर बेटी भी "ना" ही कहती| क्या करती !!! दिल को मजबूत करते हुए और उसूलों को सामाजिकता की खाई में डालकर घोड़े पर सवार हो गयी| गाइड ओमर ने मेरा चेहरा पढ़ लिया था और मेरी असहजता को महसूस करते हुए मुझसे कहने लगा "आपलोग नहीं आयेंगे, तो घास खाकर कब तक जिंदा रहेगा| आपलोग आते हैं तो इसे चना नसीब होता है| इसे भी अपने लिए कमाना पड़ता है|" मैं रह-रहकर ओमर से घोड़ों के रख-रखाव और खान-पान की जानकारी लेती रही| जब हम घोड़े किराये पर ले रहे थे, तो वहाँ एक बुज़ुर्ग थे जो सभी गाइड और घोड़ों का किराया जमा कर रहे थे| बातों ही बातों में ओमर ने बताया कि जो भी दिन भर की आमदनी होती है, उसे दिन के शेष में सभी में बराबर हिस्सों में बाँट दिया जाता है| बेहद ख़ुशी हुई जानकार कि इस मशीनी युग में भी सामाजिकता का जीता - जागता मिशाल बना यह समूह आपस में इसप्रकार मिलजुल कर रहता है|

नालदेहरा समुद्र स्तर से 2044 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक खूबसूरत पहाड़ी शहर है। नालदेहरा का नाम दो शब्दों 'नाग' और 'डेहरा' से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है- "सांपों के राजा का डेरा"। 'महूनाग मंदिर', नाग भगवान को समर्पित है जो यहाँ का एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक स्थल है। मंदिर का कपाट बंद था, तो बाहर से ही जायजा लिया| ऐतिहासिक रिकॉर्ड के अनुसार अंग्रेज़ वायसराय लॉर्ड कर्जन ने इस ख़ूबसूरत पहाड़ी स्थान की खोज की थी। यह पहाड़ी स्थान अपने गोल्फ़ के मैदान के लिए सारे भारत में प्रसिद्ध है। लॉर्ड कर्जन यहाँ के ख़ूबसूरत परिवेश से इतना चकित था कि उसने इस क्षेत्र में सन १९२० में एक गोल्फ़ कोर्स बनाने का फैसला किया। नालदेहरा गोल्फ कोर्स, दुनिया में सबसे पुराने गोल्फ क्लब में से एक है| हर ओर हरियाली ही हरियाली थी| ओमर ने एक कॉटेज की तरफ इशारा करते हुए बताया कि वहाँ "माचिस" फिल्म के प्रसिद्ध गाने "चप्पा-चप्पा चरखा चले" की शूटिंग हुई थी| फिर गोल्फ कोर्स के दूसरी तरफ दिखाते हुए बताया कि देवदार के उन पेड़ों के बीच फिल्म "प्यार झुकता नहीं" की शूटिंग हुई थी| अंततः हम पहाड़ के उस उत्तुंग शिखर पर पहुँच ही गए जिसका नाम है लवर्स पॉइंट| उस जगह का नाम लवर्स पॉइंट क्यूँ पड़ा, इस बाबत कोई जानकारी नहीं मिल पायी|  वहाँ से दूर उत्तर की ओर एक पहाड़ी की ओर इशारा करते हुए हमें बताया गया कि वह चीन का बॉर्डर है|  पूरब की ओर किसी पहाड़ी पर देवी के मंदिर होने की बात बतायी गयी| अब शिखर से नीचे लौटने की बारी थी| लौटते हुए ओमर ने बताया कि वह पास के ही एक गाँव में रहता है और उस गाँव के बच्चे इन्ही दुर्गम पहाड़ियों को पैदल चढ़कर हर रोज स्कूल जाते हैं| उस गाँव के लोग अपनी रोज़मर्रा की जरूरतों का सामान लेने के लिए भी इन्ही दुर्गम पहाड़ियों को पार करते हैं| ओमर से बात करते हुए पता ही नहीं चला कब हम वापस पार्किंग के सामने आ गए थे| घोड़े से उतरकर कुछ देर तक शुक्रिया के अंदाज़ में उसका पीठ सहलाती रही और फिर ओमर से विदा लेकर कार में आ बैठी|

थोड़ी दूरी पर एक छोटा सा  रेस्त्रां दिखा, तो वहाँ रूककर कॉफ़ी और पकौड़ों का आनंद लिया| उस वक़्त रेस्त्रां में हमारे अतिरिक्त और कोई सैलानी नहीं था, तो कॉफ़ी और पकौड़ों के साथ-साथ हम उस रेस्त्रां के मैनेजर से बात करने लगे| बातों ही बातों में पता चला कि वह रेस्त्रां किसी स्थानीय व्यक्ति का नहीं बल्कि बाहर के एक व्यापारी का है| मिस्टर बीन जैसे दिखने वाले उस मैनेजर ने बताया कि वह उस रेस्त्रां में पिछले २५ साल से काम कर रहे हैं और अब उनकी तनख्वाह पाँच हज़ार रूपये है| चेहरे पर सौम्य मुस्कान लिए बड़े गर्व से बता रहे थे कि इसी जगह पर काम करते हुए उन्होंने अपनी दो बेटियों का ब्याह किया और दो लड़कों को पढ़ाया| अब इस जगह को अलविदा कहने की बारी थी|

अब जबकि उन दिलकश नजारों को अपनी आखों में भरकर हम लौट आये, सोच रही हूँ कि अगर पहाड़ों पर रहनेवाले लोगों की जिंदगी पहाड़ जैसी होती है तो उनका हौसला भी पहाड़ों जैसा ही होता है| कुछ समय के लिए पलकों को बंद कर नालदेहरा की वादियों को याद करती हूँ तो उस दुर्गम पहाड़ी पर पैदल चढ़ते स्कूल जाते बच्चे और ग्रामीण भी दिखते हैं जिनसे मैं कभी नहीं मिली| पकौड़ियां खाते हुए मुझे मिस्टर बीन से दिखनेवाले रेस्त्रां के मैनेजर याद आयेंगे और फिर मैं मन ही मन उनकी तनख्वाह के हिसाब से उनके घर के खर्चे का अनुमान लगाऊँगी|

सच ही तो है- बीता हुआ वक़्त गुज़रता नहीं, ठहर जाता है स्मृतियों में|

(शुक्रवार पत्रिका के १-१५ अगस्त २०१६ अंक में प्रकाशित)

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